विविध >> जीवन साथी जीवन साथीसत्यकाम विद्यालंकार
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विवाहित जीवन को सुखी और सफल बनाने के लिए व्यावहारिक सुझाव.....
Jivan Sathi
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जीवन साथी...अर्थात् पति-पत्नी दोनों की तुलना रथ के दो पहियों से की जाती है। रथ के दोनों पहियों के बीच ठीक-ठीक तालमेल और संतुलन होता है तभी यात्रा सुखद और सफल होती है। जीवन साथी का चुनाव कैसे करें कि दाम्पत्य जीवन सुखद और सफल हो ? हिन्दी के यशस्वी लेखक सत्यकाम विद्यालंकार ने इसी विषय पर बड़ी रोचक शैली में प्रकाश डाला है। एक अत्यंत जीवनोपयोगी पुस्तक,जिसे उपहारस्वरूप भी दिया जा सकता है।
भूमिका
प्रकृति ने पुरुष और स्त्री को ही परस्पर जीवन-साथी बनने के लिए बनाया है। दोनों का जीवन परस्पराश्रयी है; दोनों की भावनाएँ और दैनिक इच्छाएँ परस्पर पूरक हैं। साथी बनकर ही दोनों का जीवन पूर्ण होता है।
इस नैसर्गिक विधान को निर्बाध बनाने के लिए ही समाज ने विवाह की प्रथा का आविष्कार किया था। किन्तु विवाह स्त्री-पुरुष को वैधानिक साथी देने में ही सफल हो सका है। प्रत्येक पुरुष को पत्नी मिल जाती है और स्त्री को पति मिल जाता है-लेकिन साथी लाखों में एक को मिलता है।
जीवनपर्यन्त साथ रहने का प्रण करने से ही हम जीवन-साथी नहीं बन जाते। यह प्रण प्रायः वासना के प्रथम उन्माद में किया जाता है और जीवनपर्यन्त समाज के अपवाद-भय से निभाया जाता है, स्वेच्छा से नहीं। इसीलिए विवाह के सूत्र स्नेह के नहीं, घृणा के बन जाते हैं और पति-पत्नी जीवन-सखा बनने के स्थान पर जीवन-शत्रु बन जाते हैं।
साधारणतया यह कल्पना की जाती है कि स्त्री-पुरुष की नैसर्गिक कामेच्छा ही दोनों को सफल जीवन-साथी बनाने के लिए पर्याप्त प्रेरणा है। यह भूल है। काम-सम्बन्धी आकर्षण क्षण-स्थायी होता है। कामजन्य इच्छाओं की तृप्ति के बाद वह नष्ट भी हो जाता है ऐसे क्षण-भंगुर आधार पर जीवन प्रेम की इमारत खड़ी नहीं हो सकती।
जीवन-साथी बनने के लिए जिस आकर्षण की आवश्यकता है वह दैहिक नहीं, आत्मिक है। दो शरीर नहीं-बल्कि दो आत्माएँ ही जीवन-साथी बन सकती हैं। स्त्री-पुरुष का प्रथम मिलन केवल दैहिक आकर्षण से भी सम्भव हो सकता है-किन्तु जीवन-भर का साथ उन दोनों की मानसिक या आत्मिक एकरुपता पर ही निर्भर है।
एकरूपता से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि दोनों के शील-स्वभाव में समानता होनी चाहिए; या दोनों का व्यक्तित्व एक-सा होना चाहिए; अथवा कि यह दोनों को एक-दूसरे में इतना मिट जाना या खोजाना चाहिए कि वे एक प्राण दो शरीर दिखाई देने लगें- उनमें एकत्व आ जाए। मैं इस सम्पूर्ण समर्पण को न तो सम्भव ही मानता हूँ और न अभीष्ट ही समझता हूँ। स्वयं को मिटा देने के इस उपक्रम में मनुष्य प्रायः अपनी सब विशेषताओं को मिटा देता है; अपनी स्वतन्त्रता का, अपने व्यक्तित्व का नाश कर देता है। मेरा विश्वास है कि दो स्वतन्त्र आत्माएँ ही सफल जीवन-साथी बन सकती है; परतन्त्र समर्पित या विनष्ट आत्माएँ नहीं।
स्वयं को नष्ट करने के स्थान पर यदि दोनों एक-दूसरे के विकास में सहायता देने का यत्न करें तो वे अधिक सफल जीवन-साथी बन सकते हैं। जो प्रेम प्रेमी के विकास में सहायक नहीं होता वह प्रेम नहीं हो सकता। जिन दो व्यक्तियों का जीवन एक-दूसरे की वृद्ध और एक-दूसरे के विकास में सहायक नहीं होगा, वे जीवन-साथी नहीं बन सकेंगे। क्योंकि जीवन-साथी बनने का कोई भी कार्य विनाशोन्मुख नहीं हो सकता। वह सदा रचनात्मक होगा।
जो स्त्री-पुरुष विवाहित जीवन को सफल बनाने या जीवन-साथी को अनुकूल बनाने के लिए विशेष धारणा-ध्यान या जप-तप की साधना करते हैं वे भी भूलते हैं। इसके लिए किसी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं; केवल सरल, सहानुभूतिपूर्ण हृदय और स्वतन्त्र विवेक की आवश्यकता है। भगवान ने ये दोनों चीजें साधारण से साधारण स्त्री-पुरुष को दी हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक भय से प्रेरित होकर हम इन स्वगत गुणों को भूल जाते हैं। तब हमारे हृदय और मस्तिष्क विकृत हो जाते हैं। स्वार्थी और रूढ़ियों से बंधे हुए व्यक्ति कभी सच्चे जीवन-साथी नहीं हो सकते।
सहानुभूतिपूर्ण हृदय और स्वतन्त्र विचारशील मस्तिष्क-यही जीवन-साथी बनने के उपकरण हैं। व्यापारिक जीवन की विषमताओं ने हमारे इन उपकरणों को कुन्द बना दिया है। विज्ञान के नए आविष्कार हमें भौतिक जगत् में बहुत ऊँचा लिए जा रहे हैं-किन्तु हमारा बौद्धिक धरातल अभी तक बहुत नीचा है। वह अभी तक पुरानी रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है। इसलिए हमारे बाह्य या आन्तरिक जगत् में बहुत विषमता पैदा हो गई है। इन विषमताओं की आँधी में हम अपनी मनुष्यता और मनुष्योचित गुणों को खो बैठे हैं।
सफल जीवन-साथी बनने के लिए हमें फिर मानवोचित गुणों का विकास करना है। हमें यह न भूलना चाहिए कि हमारे जीवन में भौतिक तत्त्वों की अपेक्षा आत्मिक तत्त्वों का अनुशासन अधिक है। आत्मिक गुण ही हमें जीवन में सफल बना सकते हैं। सफल जीवन ही सफल जीवन-साथी बन सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक में मैंने जो विचार प्रकट किए हैं, वे पुरानी रूढ़ियों के पोषण के लिए बल्कि पाठकों को स्वतन्त्र दृष्टि से विचार करने की प्रेरणा देने के लिए किए हैं। मेरी धारणा है कि आज के युग में मस्तिष्क और हृदय की स्वतन्त्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति सच्चे अर्थों में जीवन-साथी नहीं बन सकता। धर्म की जंजीरें या कानून की कड़ियाँ किन्हीं दो व्यक्तियों को एक ही रस्सी में जन्म-भर बाँध ज़रूर सकती हैं, किन्तु वह बन्धन दो जीवित व्यक्तियों का आत्मिक बन्धन न होकर दो मृत देहों का बन्धन होगा। इसी तरह प्रेम का क्षणिक उन्माद भी दो शरीरों में कुछ देर के लिए वासना की चिन्गारियाँ पैदा कर सकता है; वह भोग की आग में दोनों को जलाकर राख भी कर सकता है; लेकिन दो स्वतन्त्र, जीवित आत्माओं को जीवन-साथी बनाने में वह सफल नहीं हो सकता।
विवाह करने से कोई जीवन-साथी नहीं बन जाता। जो पति-पत्नी जीवन-साथी नहीं बनते, केवल अपनी सुविधा के लिए एक-दूसरे के शरीर व मन को उपयोग करते हैं; उनका घर घर नहीं, नरक बन जाता है। घर को स्वर्ग बनाना हो तो पति-पत्नी को परस्पर अनुरूपता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक में इस अनुरूपता को सम्भव बनाने के लिए मैंने कुछ व्यावहारिक निर्देश भी दिए हैं। इन निर्देशों का आधार जीवन-भर का अनुभव है। दो-चार युगल भी इन निर्देशों से अपने घर को सुखी बना सकेंगे तो मैं अपने प्रयत्न को सफल मानूँगा।
इस नैसर्गिक विधान को निर्बाध बनाने के लिए ही समाज ने विवाह की प्रथा का आविष्कार किया था। किन्तु विवाह स्त्री-पुरुष को वैधानिक साथी देने में ही सफल हो सका है। प्रत्येक पुरुष को पत्नी मिल जाती है और स्त्री को पति मिल जाता है-लेकिन साथी लाखों में एक को मिलता है।
जीवनपर्यन्त साथ रहने का प्रण करने से ही हम जीवन-साथी नहीं बन जाते। यह प्रण प्रायः वासना के प्रथम उन्माद में किया जाता है और जीवनपर्यन्त समाज के अपवाद-भय से निभाया जाता है, स्वेच्छा से नहीं। इसीलिए विवाह के सूत्र स्नेह के नहीं, घृणा के बन जाते हैं और पति-पत्नी जीवन-सखा बनने के स्थान पर जीवन-शत्रु बन जाते हैं।
साधारणतया यह कल्पना की जाती है कि स्त्री-पुरुष की नैसर्गिक कामेच्छा ही दोनों को सफल जीवन-साथी बनाने के लिए पर्याप्त प्रेरणा है। यह भूल है। काम-सम्बन्धी आकर्षण क्षण-स्थायी होता है। कामजन्य इच्छाओं की तृप्ति के बाद वह नष्ट भी हो जाता है ऐसे क्षण-भंगुर आधार पर जीवन प्रेम की इमारत खड़ी नहीं हो सकती।
जीवन-साथी बनने के लिए जिस आकर्षण की आवश्यकता है वह दैहिक नहीं, आत्मिक है। दो शरीर नहीं-बल्कि दो आत्माएँ ही जीवन-साथी बन सकती हैं। स्त्री-पुरुष का प्रथम मिलन केवल दैहिक आकर्षण से भी सम्भव हो सकता है-किन्तु जीवन-भर का साथ उन दोनों की मानसिक या आत्मिक एकरुपता पर ही निर्भर है।
एकरूपता से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि दोनों के शील-स्वभाव में समानता होनी चाहिए; या दोनों का व्यक्तित्व एक-सा होना चाहिए; अथवा कि यह दोनों को एक-दूसरे में इतना मिट जाना या खोजाना चाहिए कि वे एक प्राण दो शरीर दिखाई देने लगें- उनमें एकत्व आ जाए। मैं इस सम्पूर्ण समर्पण को न तो सम्भव ही मानता हूँ और न अभीष्ट ही समझता हूँ। स्वयं को मिटा देने के इस उपक्रम में मनुष्य प्रायः अपनी सब विशेषताओं को मिटा देता है; अपनी स्वतन्त्रता का, अपने व्यक्तित्व का नाश कर देता है। मेरा विश्वास है कि दो स्वतन्त्र आत्माएँ ही सफल जीवन-साथी बन सकती है; परतन्त्र समर्पित या विनष्ट आत्माएँ नहीं।
स्वयं को नष्ट करने के स्थान पर यदि दोनों एक-दूसरे के विकास में सहायता देने का यत्न करें तो वे अधिक सफल जीवन-साथी बन सकते हैं। जो प्रेम प्रेमी के विकास में सहायक नहीं होता वह प्रेम नहीं हो सकता। जिन दो व्यक्तियों का जीवन एक-दूसरे की वृद्ध और एक-दूसरे के विकास में सहायक नहीं होगा, वे जीवन-साथी नहीं बन सकेंगे। क्योंकि जीवन-साथी बनने का कोई भी कार्य विनाशोन्मुख नहीं हो सकता। वह सदा रचनात्मक होगा।
जो स्त्री-पुरुष विवाहित जीवन को सफल बनाने या जीवन-साथी को अनुकूल बनाने के लिए विशेष धारणा-ध्यान या जप-तप की साधना करते हैं वे भी भूलते हैं। इसके लिए किसी बाह्य सहायता की आवश्यकता नहीं; केवल सरल, सहानुभूतिपूर्ण हृदय और स्वतन्त्र विवेक की आवश्यकता है। भगवान ने ये दोनों चीजें साधारण से साधारण स्त्री-पुरुष को दी हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ और सामाजिक भय से प्रेरित होकर हम इन स्वगत गुणों को भूल जाते हैं। तब हमारे हृदय और मस्तिष्क विकृत हो जाते हैं। स्वार्थी और रूढ़ियों से बंधे हुए व्यक्ति कभी सच्चे जीवन-साथी नहीं हो सकते।
सहानुभूतिपूर्ण हृदय और स्वतन्त्र विचारशील मस्तिष्क-यही जीवन-साथी बनने के उपकरण हैं। व्यापारिक जीवन की विषमताओं ने हमारे इन उपकरणों को कुन्द बना दिया है। विज्ञान के नए आविष्कार हमें भौतिक जगत् में बहुत ऊँचा लिए जा रहे हैं-किन्तु हमारा बौद्धिक धरातल अभी तक बहुत नीचा है। वह अभी तक पुरानी रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है। इसलिए हमारे बाह्य या आन्तरिक जगत् में बहुत विषमता पैदा हो गई है। इन विषमताओं की आँधी में हम अपनी मनुष्यता और मनुष्योचित गुणों को खो बैठे हैं।
सफल जीवन-साथी बनने के लिए हमें फिर मानवोचित गुणों का विकास करना है। हमें यह न भूलना चाहिए कि हमारे जीवन में भौतिक तत्त्वों की अपेक्षा आत्मिक तत्त्वों का अनुशासन अधिक है। आत्मिक गुण ही हमें जीवन में सफल बना सकते हैं। सफल जीवन ही सफल जीवन-साथी बन सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक में मैंने जो विचार प्रकट किए हैं, वे पुरानी रूढ़ियों के पोषण के लिए बल्कि पाठकों को स्वतन्त्र दृष्टि से विचार करने की प्रेरणा देने के लिए किए हैं। मेरी धारणा है कि आज के युग में मस्तिष्क और हृदय की स्वतन्त्रता प्राप्त किए बिना कोई भी व्यक्ति सच्चे अर्थों में जीवन-साथी नहीं बन सकता। धर्म की जंजीरें या कानून की कड़ियाँ किन्हीं दो व्यक्तियों को एक ही रस्सी में जन्म-भर बाँध ज़रूर सकती हैं, किन्तु वह बन्धन दो जीवित व्यक्तियों का आत्मिक बन्धन न होकर दो मृत देहों का बन्धन होगा। इसी तरह प्रेम का क्षणिक उन्माद भी दो शरीरों में कुछ देर के लिए वासना की चिन्गारियाँ पैदा कर सकता है; वह भोग की आग में दोनों को जलाकर राख भी कर सकता है; लेकिन दो स्वतन्त्र, जीवित आत्माओं को जीवन-साथी बनाने में वह सफल नहीं हो सकता।
विवाह करने से कोई जीवन-साथी नहीं बन जाता। जो पति-पत्नी जीवन-साथी नहीं बनते, केवल अपनी सुविधा के लिए एक-दूसरे के शरीर व मन को उपयोग करते हैं; उनका घर घर नहीं, नरक बन जाता है। घर को स्वर्ग बनाना हो तो पति-पत्नी को परस्पर अनुरूपता प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक में इस अनुरूपता को सम्भव बनाने के लिए मैंने कुछ व्यावहारिक निर्देश भी दिए हैं। इन निर्देशों का आधार जीवन-भर का अनुभव है। दो-चार युगल भी इन निर्देशों से अपने घर को सुखी बना सकेंगे तो मैं अपने प्रयत्न को सफल मानूँगा।
-लेखक
पत्र: 1
साथी की आकांक्षा
भार्या श्रेष्ठतमं मित्रम्।
स्त्री पुरुष की सर्वोत्तम साथी है।
स्त्री पुरुष की सर्वोत्तम साथी है।
प्रिय कमला,
कुछ दिनों से मैं अनुभव कर रहा हूँ कि तुम मुझसे कुछ पूछना चाहती हो। कोई सवाल तुम्हारे होंठों तक आकर वापस चला जाता है। संकोचवश तुम चुप रह जाती हो। यह चुप्पी अच्छी नहीं। यह मौन तुम्हारे मन में एक गाँठ डाल देता है। जिस रहस्य को समझने के लिए तुम सवाल करना चाहती हो, वह रहस्य राहु बनकर तुम्हारी विचार-शक्ति को ग्रस लेता है।
ऐसा निरोध मानसिक स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं होता। प्रश्न करने में तुम्हें लज्जा अनुभव होना स्वाभाविक है लेकिन तुम्हें इस झूठी लज्जा पर विजय पानी होगी। बच्चे के मन में जो शंकाएँ पैदा होती हैं। वे उसके होंठों पर तुरन्त आ जाती हैं। माता-पिता का सारा समय उनके समाधान में निकल जाता है। इन प्रश्नों का उत्तर पाना उसका अधिकार है। इसी तरह युवावस्था की रहस्य-भरी शंकाओं का उत्तर पाना भी तुम्हारा अधिकार है। इन प्रश्नों के प्रकट करने में तुम्हें बहुत संकोच नहीं होना चाहिए।
इन प्रश्नों द्वारा तुम अपने को पहचानने का प्रयत्न करती हो; अपने को समझने की कोशिश करती हो। तुम्हारा जीवन ऐसा मृत पाषाण नहीं है जिसके सब पार्श्व एक बार देख लेने पर व्यक्त हो जाते हैं। वह तो बहते पानी की तरह है जिसमें प्रतिक्षण नई लहरें पैदा होती हैं, जो प्रतिलय नए किनारों को छूता है और सदा नई धाराओं में बहता रहता है।
यह परिवर्तनशीलता मनुष्य को हर समय नई-नई बातें सीखने को बाध्य करती है। यह नवीनता, जो उसके चारों ओर हर सुबह और हर शाम किसी न किसी रूप में प्रकट होती है, उसके मन में रहस्य-भरी जिज्ञासा को भर देती है। उसे जानने का उपाय यही है कि तुम अपने हितचिन्तकों से पूछो, उनके अनुभवों से लाभ उठाओ।
तुम्हारे शरीर में परिवर्तन हो रहे हैं। तुम्हें उनका ज्ञान भी नहीं होता। प्रकृति स्वयं अपना निर्माण-कार्य कर रही है। उसकी शिल्पकला का कोई अन्त नहीं है। तुम्हारा शरीर प्रकृति की प्रयोगशाला है, तुम उसमें दखल नहीं दे सकती। केवल उसे देख सकती हो और आश्चर्य कर सकती हो। लेकिन याद रखो, शरीर की अपेक्षा तुम्हार मन अधिक वेग से बदल रहा है। तुम्हारे मानसिक जगत् में रोज़ परिवर्तन हो रहे हैं। तुम्हारी भावनाएँ रोज़ नए रंगों में रंगी जा रही हैं। तुम्हारे मनोवेगों में रोज़ नई आँधी उठती है।
यह भी प्रकृति का आदेश है। वह बड़े रहस्य-भरे उपायों से अपना कार्य सिद्ध करती है। उसके लिए तुम्हारा शरीर एक प्रयोगशाला से अधिक नहीं। प्रकृति के आदेशों से विद्रोह नहीं हो सकता। निमित्त-मात्र बनकर तुम्हें उसके इशारों पर चलना पड़ता है। किन्तु ईश्वर ने तुम्हें बुद्धि दी है। तुम उन इशारों को समझने की कोशिश करती हो। अपने परिवर्तन मनोभावों को पढ़ने का यत्न करती हो। यह यत्न ही तुम्हें जिज्ञासु बना रहा है। इस जिज्ञासा में ही मनुष्य की मनुष्यता निहित है। मनुष्य की यह सहज प्रेरणा ही उसे पशु-जगत् से ऊँचा उठाती है।
तुम कहो या न कहो, तुम्हारे मन में एक इच्छा बलवती हो उठी है। अब तुम अपनी नाव की पतवार अपने हाथों में लेना चाहती हो। माता-पिता के संरक्षण में ही रहते हुए चलना अब तुम्हें रूचिकर मालूम नहीं होता। तुम्हारा जीवन स्वतन्त्रता चाहता है। वह स्वतन्त्र गति से स्वतन्त्र उद्देश्य की इच्छा करने लगा है। तुम अपनी नाव माता-पिता की नाव से अलग अपनी रुचि के अनुसार किसी भी दिशा में ले जाना चाहती हो। यह इच्छा बड़ी स्वाभाविक है। इसे विद्रोह नहीं कहते। कुछ ना-समझ माता-पिता सन्तान की इस स्वाभाविक इच्छा का दमन करने की कोशिश करते हैं। परिणाम यह होता है कि या तो उनकी सन्तान विद्रोह करके कुमार्ग पर चल पड़ती है अथवा उनकी स्वतन्त्र कार्यशक्ति का इतना दमन हो जाता है कि उनके तन-मन में एक थका देनेवाली निश्चेष्टा भर जाती है।
विवेकशील माता-पिता सन्तान की इस स्वाधीनताप्रिय इच्छा का आदर करते हैं। उन्हें अपने अनुभव से सन्मार्ग पर जाने की प्रेरणा देते हैं। उनकी नाव के चप्पू उनके ही हाथों में देकर भी दूर से उनको जीवन की आँधियों से चेतावनी देते हुए ज्योति-स्तम्भ का कार्य करते रहते हैं। मुझे मालूम है, तुम्हारे माता-पिता बहुत समझदार हैं। उन्होंने तुम्हारे मार्ग में कभी रुकावटें नहीं डालीं। तुम्हें स्वतन्त्र रूप से अपनी नाव चलाने देने में वे सदैव तुम्हारे सहायक रहेंगे।
माता-पिता की छत्रछाया से दूर हटते ही कुछ तुमने यह अनुभव किया होगा कि जीवन की नाव चलाने के लिए दो हाथ ही पर्याप्त नहीं है। संसार के महासागर में जीवन की छोटी-सी नौका एक ही नाविक के बल पर आगे नहीं बढ़ सकती। उसे चलाने के लिए साथी की ज़रूरत है। संसार सागर की यह यात्रा अकेले नहीं कटती। माता-पिता का साथ छूटने के बाद तुम किसी और साथी की चाह करने लगती हो। यह चाह धीरे-धीरे तुम्हारी नस-नस में भर जाती है। दिल की हर धड़कन साथी की कामना करने लगती है। यह कामना यदि कुछ देर अतृप्त रह जाए तो एक गहरी उदासी का कुहरा तुम्हारे जीवन में छा जाता है।
साथी पाने की यह चाह भी प्रकृति के रहस्य-भरे नियमों का ही एक अंग है। युवती युवक का साथ चाहती है और युवक का मन युवती के साथ की कामना करता है। यह कामना भूख लगने की इच्छा के समान ही प्राकृति इच्छा है। इस इच्छा की आलोचना करना प्रकृति के नियमों में छिद्रान्वेषण करना है। ऐसा दुःसाहस मैं नहीं करता। किन्तु प्रकृति की गतिविधि को समझकर मनुष्य उसका दुष्प्रयोग कर लेते हैं। मैं उससे तुम्हें सावधान करना चाहता हूँ।
उसका दुष्प्रयोग केवल प्राकृतिक प्रेरणाओं के अतिरंजन में ही नहीं होता, बल्कि उनके निरोध में भी होता है। हमें दोनों दिशाओं की अति से बचना चाहिए। मैं एक लड़की को जानता हूँ जिसने आजन्म ब्रह्मचारिणी रहने का प्रण किया था। ब्रह्मचर्य के अर्थ बहुत व्यापक हैं। मैं समझता हूँ उन व्यापक अर्थों को बिना जाने उसने अपनी सदा अकेले रहने की इच्छा को ही ब्रह्मचारिणी रहने की इच्छा कहकर इस शब्द का प्रयोग किया था। इस शब्द के प्रयोग पर मुझे आपत्ति नहीं, किन्तु उसके प्रण पर अवश्य है।
ऐसे भीषण प्रण प्रायः वही व्यक्ति करते हैं जिन्हें अपने मन में संयत जीवन बिताने का भरोसा नहीं होता। साथी पाने की इच्छा जब उन्हें बहुत परेशान करने लगती है और साधारण उपायों से उसके वेग का शमन नहीं होता तो वे ऐसे हठ-भरे प्रयोग शुरू कर देते हैं।
ऐसे प्रण प्रायः शरीर की चेष्टाओं का क्षणिक दमन ही कर पाते हैं, मन इसकी स्वीकृति नहीं देता। शरीर जब-जब इस प्रण की पूर्ति के लिए कुछ अप्राकृतिक उपायों का अवलम्बन लेता है, तब-तब मनुष्य का मन विद्रोह करने लगता है। मन और शरीर के इस संघर्ष से युवक-युवतियों को जो थकावट और शिथिलता-सी मालूम होने लग जाती है, उससे बचने का वे कोई उपाय नहीं जानते। ब्रह्मचर्य के सबसे बड़े समर्थक महात्मा गाँधीजी ने ही इसका विरोध करते हुए एक स्थान पर कहा है, ‘‘यदि इस संयम में मन और शरीर एकसाथ काम नहीं करते तो शरीर और आत्मा बुरी तरह जर्जरित हो जाते हैं।’’
इसलिए साधारण व्यक्तियों को ऐसे प्रण नहीं करने चाहिए। इस निग्रह-शक्ति का उपोयग उन्हें लोकोपयोगी कार्यों में करना चाहिए। अतिशय निग्रह में भी शक्ति का दुरुपयोग होता है। हाँ, जिनका मन लोकहित के कामों में पूर्णतया समर्पित हो चुका है वे ऐसा व्रत ले सकते हैं। लेकिन कौमार्य अवस्था से मैं किसी भी साधारण लड़की से यह आशा नहीं रखता कि उसका मन केवल लोकसेवा में अर्पण हो सकता है। उस अवस्था में प्रायः सभी अपनी शक्तियों और अपने आदर्शों से अपरिचित होते हैं। अतः उन्हें मध्यम मार्ग का ही आश्रय लेना चाहिए।
मध्यम मार्ग यही है कि प्रत्येक स्त्री अवस्था आने पर अपने साथी का चुनाव कर ले; एक बार चुनाव करके उस साथ को जीवन-भर निभाने का प्रण करे, जीवन-साथी बना ले। इसी प्रण का नाम विवाह का प्रण है।
कुछ दिनों से मैं अनुभव कर रहा हूँ कि तुम मुझसे कुछ पूछना चाहती हो। कोई सवाल तुम्हारे होंठों तक आकर वापस चला जाता है। संकोचवश तुम चुप रह जाती हो। यह चुप्पी अच्छी नहीं। यह मौन तुम्हारे मन में एक गाँठ डाल देता है। जिस रहस्य को समझने के लिए तुम सवाल करना चाहती हो, वह रहस्य राहु बनकर तुम्हारी विचार-शक्ति को ग्रस लेता है।
ऐसा निरोध मानसिक स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं होता। प्रश्न करने में तुम्हें लज्जा अनुभव होना स्वाभाविक है लेकिन तुम्हें इस झूठी लज्जा पर विजय पानी होगी। बच्चे के मन में जो शंकाएँ पैदा होती हैं। वे उसके होंठों पर तुरन्त आ जाती हैं। माता-पिता का सारा समय उनके समाधान में निकल जाता है। इन प्रश्नों का उत्तर पाना उसका अधिकार है। इसी तरह युवावस्था की रहस्य-भरी शंकाओं का उत्तर पाना भी तुम्हारा अधिकार है। इन प्रश्नों के प्रकट करने में तुम्हें बहुत संकोच नहीं होना चाहिए।
इन प्रश्नों द्वारा तुम अपने को पहचानने का प्रयत्न करती हो; अपने को समझने की कोशिश करती हो। तुम्हारा जीवन ऐसा मृत पाषाण नहीं है जिसके सब पार्श्व एक बार देख लेने पर व्यक्त हो जाते हैं। वह तो बहते पानी की तरह है जिसमें प्रतिक्षण नई लहरें पैदा होती हैं, जो प्रतिलय नए किनारों को छूता है और सदा नई धाराओं में बहता रहता है।
यह परिवर्तनशीलता मनुष्य को हर समय नई-नई बातें सीखने को बाध्य करती है। यह नवीनता, जो उसके चारों ओर हर सुबह और हर शाम किसी न किसी रूप में प्रकट होती है, उसके मन में रहस्य-भरी जिज्ञासा को भर देती है। उसे जानने का उपाय यही है कि तुम अपने हितचिन्तकों से पूछो, उनके अनुभवों से लाभ उठाओ।
तुम्हारे शरीर में परिवर्तन हो रहे हैं। तुम्हें उनका ज्ञान भी नहीं होता। प्रकृति स्वयं अपना निर्माण-कार्य कर रही है। उसकी शिल्पकला का कोई अन्त नहीं है। तुम्हारा शरीर प्रकृति की प्रयोगशाला है, तुम उसमें दखल नहीं दे सकती। केवल उसे देख सकती हो और आश्चर्य कर सकती हो। लेकिन याद रखो, शरीर की अपेक्षा तुम्हार मन अधिक वेग से बदल रहा है। तुम्हारे मानसिक जगत् में रोज़ परिवर्तन हो रहे हैं। तुम्हारी भावनाएँ रोज़ नए रंगों में रंगी जा रही हैं। तुम्हारे मनोवेगों में रोज़ नई आँधी उठती है।
यह भी प्रकृति का आदेश है। वह बड़े रहस्य-भरे उपायों से अपना कार्य सिद्ध करती है। उसके लिए तुम्हारा शरीर एक प्रयोगशाला से अधिक नहीं। प्रकृति के आदेशों से विद्रोह नहीं हो सकता। निमित्त-मात्र बनकर तुम्हें उसके इशारों पर चलना पड़ता है। किन्तु ईश्वर ने तुम्हें बुद्धि दी है। तुम उन इशारों को समझने की कोशिश करती हो। अपने परिवर्तन मनोभावों को पढ़ने का यत्न करती हो। यह यत्न ही तुम्हें जिज्ञासु बना रहा है। इस जिज्ञासा में ही मनुष्य की मनुष्यता निहित है। मनुष्य की यह सहज प्रेरणा ही उसे पशु-जगत् से ऊँचा उठाती है।
तुम कहो या न कहो, तुम्हारे मन में एक इच्छा बलवती हो उठी है। अब तुम अपनी नाव की पतवार अपने हाथों में लेना चाहती हो। माता-पिता के संरक्षण में ही रहते हुए चलना अब तुम्हें रूचिकर मालूम नहीं होता। तुम्हारा जीवन स्वतन्त्रता चाहता है। वह स्वतन्त्र गति से स्वतन्त्र उद्देश्य की इच्छा करने लगा है। तुम अपनी नाव माता-पिता की नाव से अलग अपनी रुचि के अनुसार किसी भी दिशा में ले जाना चाहती हो। यह इच्छा बड़ी स्वाभाविक है। इसे विद्रोह नहीं कहते। कुछ ना-समझ माता-पिता सन्तान की इस स्वाभाविक इच्छा का दमन करने की कोशिश करते हैं। परिणाम यह होता है कि या तो उनकी सन्तान विद्रोह करके कुमार्ग पर चल पड़ती है अथवा उनकी स्वतन्त्र कार्यशक्ति का इतना दमन हो जाता है कि उनके तन-मन में एक थका देनेवाली निश्चेष्टा भर जाती है।
विवेकशील माता-पिता सन्तान की इस स्वाधीनताप्रिय इच्छा का आदर करते हैं। उन्हें अपने अनुभव से सन्मार्ग पर जाने की प्रेरणा देते हैं। उनकी नाव के चप्पू उनके ही हाथों में देकर भी दूर से उनको जीवन की आँधियों से चेतावनी देते हुए ज्योति-स्तम्भ का कार्य करते रहते हैं। मुझे मालूम है, तुम्हारे माता-पिता बहुत समझदार हैं। उन्होंने तुम्हारे मार्ग में कभी रुकावटें नहीं डालीं। तुम्हें स्वतन्त्र रूप से अपनी नाव चलाने देने में वे सदैव तुम्हारे सहायक रहेंगे।
माता-पिता की छत्रछाया से दूर हटते ही कुछ तुमने यह अनुभव किया होगा कि जीवन की नाव चलाने के लिए दो हाथ ही पर्याप्त नहीं है। संसार के महासागर में जीवन की छोटी-सी नौका एक ही नाविक के बल पर आगे नहीं बढ़ सकती। उसे चलाने के लिए साथी की ज़रूरत है। संसार सागर की यह यात्रा अकेले नहीं कटती। माता-पिता का साथ छूटने के बाद तुम किसी और साथी की चाह करने लगती हो। यह चाह धीरे-धीरे तुम्हारी नस-नस में भर जाती है। दिल की हर धड़कन साथी की कामना करने लगती है। यह कामना यदि कुछ देर अतृप्त रह जाए तो एक गहरी उदासी का कुहरा तुम्हारे जीवन में छा जाता है।
साथी पाने की यह चाह भी प्रकृति के रहस्य-भरे नियमों का ही एक अंग है। युवती युवक का साथ चाहती है और युवक का मन युवती के साथ की कामना करता है। यह कामना भूख लगने की इच्छा के समान ही प्राकृति इच्छा है। इस इच्छा की आलोचना करना प्रकृति के नियमों में छिद्रान्वेषण करना है। ऐसा दुःसाहस मैं नहीं करता। किन्तु प्रकृति की गतिविधि को समझकर मनुष्य उसका दुष्प्रयोग कर लेते हैं। मैं उससे तुम्हें सावधान करना चाहता हूँ।
उसका दुष्प्रयोग केवल प्राकृतिक प्रेरणाओं के अतिरंजन में ही नहीं होता, बल्कि उनके निरोध में भी होता है। हमें दोनों दिशाओं की अति से बचना चाहिए। मैं एक लड़की को जानता हूँ जिसने आजन्म ब्रह्मचारिणी रहने का प्रण किया था। ब्रह्मचर्य के अर्थ बहुत व्यापक हैं। मैं समझता हूँ उन व्यापक अर्थों को बिना जाने उसने अपनी सदा अकेले रहने की इच्छा को ही ब्रह्मचारिणी रहने की इच्छा कहकर इस शब्द का प्रयोग किया था। इस शब्द के प्रयोग पर मुझे आपत्ति नहीं, किन्तु उसके प्रण पर अवश्य है।
ऐसे भीषण प्रण प्रायः वही व्यक्ति करते हैं जिन्हें अपने मन में संयत जीवन बिताने का भरोसा नहीं होता। साथी पाने की इच्छा जब उन्हें बहुत परेशान करने लगती है और साधारण उपायों से उसके वेग का शमन नहीं होता तो वे ऐसे हठ-भरे प्रयोग शुरू कर देते हैं।
ऐसे प्रण प्रायः शरीर की चेष्टाओं का क्षणिक दमन ही कर पाते हैं, मन इसकी स्वीकृति नहीं देता। शरीर जब-जब इस प्रण की पूर्ति के लिए कुछ अप्राकृतिक उपायों का अवलम्बन लेता है, तब-तब मनुष्य का मन विद्रोह करने लगता है। मन और शरीर के इस संघर्ष से युवक-युवतियों को जो थकावट और शिथिलता-सी मालूम होने लग जाती है, उससे बचने का वे कोई उपाय नहीं जानते। ब्रह्मचर्य के सबसे बड़े समर्थक महात्मा गाँधीजी ने ही इसका विरोध करते हुए एक स्थान पर कहा है, ‘‘यदि इस संयम में मन और शरीर एकसाथ काम नहीं करते तो शरीर और आत्मा बुरी तरह जर्जरित हो जाते हैं।’’
इसलिए साधारण व्यक्तियों को ऐसे प्रण नहीं करने चाहिए। इस निग्रह-शक्ति का उपोयग उन्हें लोकोपयोगी कार्यों में करना चाहिए। अतिशय निग्रह में भी शक्ति का दुरुपयोग होता है। हाँ, जिनका मन लोकहित के कामों में पूर्णतया समर्पित हो चुका है वे ऐसा व्रत ले सकते हैं। लेकिन कौमार्य अवस्था से मैं किसी भी साधारण लड़की से यह आशा नहीं रखता कि उसका मन केवल लोकसेवा में अर्पण हो सकता है। उस अवस्था में प्रायः सभी अपनी शक्तियों और अपने आदर्शों से अपरिचित होते हैं। अतः उन्हें मध्यम मार्ग का ही आश्रय लेना चाहिए।
मध्यम मार्ग यही है कि प्रत्येक स्त्री अवस्था आने पर अपने साथी का चुनाव कर ले; एक बार चुनाव करके उस साथ को जीवन-भर निभाने का प्रण करे, जीवन-साथी बना ले। इसी प्रण का नाम विवाह का प्रण है।
तुम्हारा हितचिन्तक
पत्र : 2
प्रेम की डोर
Let us love one another; love is god and is love-bible.
प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है।
प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है।
प्रिय कमला,
जितनी आसानी से मैं विवाहित जीवन के साथी की बात लिख गया था, उतनी आसान नहीं थी वह-यह बात मुझे तुम्हारा पत्र मिलते ही याद आ गई। उसमें भी शंकाएँ हो सकती हैं। तुमने लिखा है:
‘‘विवाह के बाद स्त्री का जीवन गृहस्थी के कामों में इतना उलझ जाता है कि उसे अपना मानसिक विकास करने का अवसर ही नहीं मिलता उसकी आज़ादी पूरी तरह छिन जाती है।
‘‘आप उसे कुछ भी मानें, उस वैवाहिक सुख में मेरी जरा भी दिलचस्पी नहीं है जिसके ढिंढोरे पीटकर विवाह-वेदी पर मासूम लड़कियों की बलि दे दी जाती है और जिसका गुणगान हमारे धार्मिक लेखक, नेता और कवि किया करते हैं। वैवाहिक प्रेम की व्यर्थ आशा में मैं स्वतन्त्रता खोने को तैयार नहीं हूँ। पति नामक व्यक्ति के हाथ की कठपुतली या उसके आनन्द का साधन बनकर अपनी सत्ता खोने की अपेक्षा मैं कठोर श्रम से अपने साधन आप जुटाकर स्वतन्त्र रहना अधिक पसन्द करती हूँ।’’
जिस आवेश में तुमने यह बात लिखी है मैं उसका कारण समझता हूँ। स्वतन्त्र जीवन के विषय में जो तुम्हारे विचार हैं, मैं उनका आदर करता हूँ। प्रत्येक को स्वतन्त्र जीवन बिताने का पूरा अधिकार है। पति, बच्चे, माता-पिता या और कोई भी इसमें बाधक नहीं होना चाहिए। यह स्वतन्त्रता ही मनुष्य की आत्मा है। जो इसकी उपेक्षा करता है, वह आत्म-हत्या का दोषी है।
अपनी आजादी को बेचना अपने को बेचना है, अपने को दास बनाना है। ऐसी दासता मनुष्य की परवशता की सीमा है। प्राण देकर भी मनुष्य को अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए।
लेकिन, यदि कोई अपनी इच्छा से अपनी स्वतन्त्रता, अपना सब कुछ दूसरे के साथ दे देता है तो तुम आपत्ति नहीं कर सकतीं। स्वतन्त्रता का बहुत मूल्य है, किन्तु यदि कोई उससे भी अधिक कीमती चीज़ पाने के लिए अपनी इस अनमोल निधि को दांव पर लगा देता है तो तुम क्या कहोगी ? इसे बलिदान कहोगी या समर्पण ? कुछ भी कहो, मनुष्य के जीवन में इस बलिदान का बड़ा भारी महत्त्व है।
जिसका साथ पाने के लिए तुम यह बलिदान करने को विह्वल हो उठो, वही तुम्हारा सच्चा जीवन-साथी होगा। एक घड़ी आएगी जब तुम्हें अपनी स्वतन्त्रता का सबसे अच्छा उपयोग किसी के चरणों में उसका समर्पण कर देना ही प्रतीत होगा। कोई फूल जब देवता के आगे अर्पित होता है तभी उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग नहीं होता क्या ? अपनी शाखा पर लगे-लगे मुरझाकर एक दिन हवा के झोंके से गिरने की अपेक्षा क्या देवार्पित होना ही पुष्प-जीवन का कृतार्थ होना नहीं है ?
जितनी आसानी से मैं विवाहित जीवन के साथी की बात लिख गया था, उतनी आसान नहीं थी वह-यह बात मुझे तुम्हारा पत्र मिलते ही याद आ गई। उसमें भी शंकाएँ हो सकती हैं। तुमने लिखा है:
‘‘विवाह के बाद स्त्री का जीवन गृहस्थी के कामों में इतना उलझ जाता है कि उसे अपना मानसिक विकास करने का अवसर ही नहीं मिलता उसकी आज़ादी पूरी तरह छिन जाती है।
‘‘आप उसे कुछ भी मानें, उस वैवाहिक सुख में मेरी जरा भी दिलचस्पी नहीं है जिसके ढिंढोरे पीटकर विवाह-वेदी पर मासूम लड़कियों की बलि दे दी जाती है और जिसका गुणगान हमारे धार्मिक लेखक, नेता और कवि किया करते हैं। वैवाहिक प्रेम की व्यर्थ आशा में मैं स्वतन्त्रता खोने को तैयार नहीं हूँ। पति नामक व्यक्ति के हाथ की कठपुतली या उसके आनन्द का साधन बनकर अपनी सत्ता खोने की अपेक्षा मैं कठोर श्रम से अपने साधन आप जुटाकर स्वतन्त्र रहना अधिक पसन्द करती हूँ।’’
जिस आवेश में तुमने यह बात लिखी है मैं उसका कारण समझता हूँ। स्वतन्त्र जीवन के विषय में जो तुम्हारे विचार हैं, मैं उनका आदर करता हूँ। प्रत्येक को स्वतन्त्र जीवन बिताने का पूरा अधिकार है। पति, बच्चे, माता-पिता या और कोई भी इसमें बाधक नहीं होना चाहिए। यह स्वतन्त्रता ही मनुष्य की आत्मा है। जो इसकी उपेक्षा करता है, वह आत्म-हत्या का दोषी है।
अपनी आजादी को बेचना अपने को बेचना है, अपने को दास बनाना है। ऐसी दासता मनुष्य की परवशता की सीमा है। प्राण देकर भी मनुष्य को अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए।
लेकिन, यदि कोई अपनी इच्छा से अपनी स्वतन्त्रता, अपना सब कुछ दूसरे के साथ दे देता है तो तुम आपत्ति नहीं कर सकतीं। स्वतन्त्रता का बहुत मूल्य है, किन्तु यदि कोई उससे भी अधिक कीमती चीज़ पाने के लिए अपनी इस अनमोल निधि को दांव पर लगा देता है तो तुम क्या कहोगी ? इसे बलिदान कहोगी या समर्पण ? कुछ भी कहो, मनुष्य के जीवन में इस बलिदान का बड़ा भारी महत्त्व है।
जिसका साथ पाने के लिए तुम यह बलिदान करने को विह्वल हो उठो, वही तुम्हारा सच्चा जीवन-साथी होगा। एक घड़ी आएगी जब तुम्हें अपनी स्वतन्त्रता का सबसे अच्छा उपयोग किसी के चरणों में उसका समर्पण कर देना ही प्रतीत होगा। कोई फूल जब देवता के आगे अर्पित होता है तभी उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग नहीं होता क्या ? अपनी शाखा पर लगे-लगे मुरझाकर एक दिन हवा के झोंके से गिरने की अपेक्षा क्या देवार्पित होना ही पुष्प-जीवन का कृतार्थ होना नहीं है ?
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